महात्मा गांधी का राष्ट्र निर्माण में योगदान


1    परिचय :-
        समस्त स्वस्थ सामाजिक परिवर्तन आन्तरिक आध्यात्मिक शक्तियों की अभिव्यक्ति होते हैं। यदि ये आन्तरिक शक्तियाँ बलवती एवं सन्तुलित हैं, तो समाज तद्नुसार अपनी रचना स्वयं कर लेगा। प्रत्येक व्यक्ति को अपना उद्धार स्वयं करना होगा। कोई अन्य उपाय नहीं है। ऐसा ही राष्ट्रों के साथ होता है। फिर प्रत्येक राष्ट्र की महान सामाजिक व्यवस्थाएँ उसके
अस्तित्व की आधारषिला हैं और उन्हें किसी दूसरी जाति के सांचे में नहीं ढाला जा सकता। जब तक उनसे श्रेष्ठ व्यवस्थाओं का विकास हो, तब तक पुरानी व्यवस्थाओं को नष्ट करना आत्मघात होगा। विकास सदैव धीरे-धीरे होता है।’’      स्वामी विवेकानन्द                                                                                                                                                        
 स्वामी विवेकानन्द की ये पंक्तियाँ राष्ट्र-निर्माण के संबंध में उनके विचारां को प्रकट करती हैं। इन पंक्तियों का सीधा सम्बन्ध चारित्रिक व्यवस्था द्वारा निर्मित मूल्यपरक तथा नैतिकतामूलक आधारां से है। आज सर्वत्र राष्ट्र-निर्माण की बात की जाती है। शिक्षाविदों, राजनीतिज्ञों, लेखकों, बुद्धिजीवियों नीति-निर्धारकों आदि के द्वारा राष्ट्र निर्माण को एक महती जिम्मेदारी के रूप में देखा जा रहा है। इस हेतु अनेक संस्थागत और नीतिगत प्रयास भी किए जा रहे हैं, किन्तु विश्व के अनेक देशों में राष्ट्र-निर्माण की समस्या लगातार बनी हुई है। इसका मुख्य कारण राष्ट्र निर्माण हेतु जो भी प्रयास किए जा रहे हैं अथवा किये जा रहे प्रयास जिन वैचारिक धरातलों पर आधारित हैं, उन धरातलों में अपूर्णता है। अधिकांश राष्ट्र-निर्माण विषयक मॉडल आर्थिक-राजनीतिक मूल्यों से प्रेरित होते हैं। इनमें नैतिकता तथा आध्यात्मिकता का समावेश नगण्य है। अतः विश्व की अधिकांश राज व्यवस्थाओं को राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। सदियों पूर्व प्रख्यात यूनानी दार्शनिक और राजनीतिक विचारक प्लेटो ने भी कहा था कि राष्ट्र-निर्माण वृक्षों और पेड़-पौधों से नहीं होता वरन् उसमें रहने वाले लोगों से होता है। स्पष्ट है उनका आशय लोगों के विवेक, बुद्धि व्यवहार से था। राष्ट्र-निर्माण सम्पूर्ण विश्व की एक ज्वलंत राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक समस्या है। जैसाकि लेख में स्वीकार किया गया है कि राष्ट्र-निर्माण के अनेक आयाम होते हैं। इन्हीं विविध आयामों का संतुलन ही राष्ट्र-निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इन्हीं विविध आयामों में आध्यात्मिकता और मूल्य-प्रणाली का आयाम भी एक महत्वपूर्ण तत्त्व है।

2. गांधी विचारधारा :-
गांधीवाद एक जीवनप्रणाली है। गांधीवाद एक विचारधारा है। जिस आधारपर न्याय, स्वतंत्रता, समानता आरै बंधुता जैसे मूल्य समाज में वृद्धींगत करने के लिए उपयोगी सिद्ध होते है। गांधीयुग का प्रारंभ बीसवी सदी में हुआ। जिसने संपूर्ण विश्व को सत्य आरै अहिंसा की आधारपर जीवन जिने का रास्ता बताया और क्रांतिकारी भुमिका का निर्माण किया। उपोषण, सत्याग्रह, असहकार, आंदोलन और सविनय कार्यदेभगं जैसे साधनां की आधारपर स्वाधीनता पाने का मलूमत्रं दिया। इन्ही साधनां की आधारपर राष्ट्रीय आदांलेन का जन आदांलेन में रूपातंर कर दिया। 1919 से 1947 तक चलाये गयें जन आदांलेन के माध्यम से साम्राज्यवादी ब्रिटिश सत्ता को हिलाकर रख दिया। वर्णभदे का विरोध करने के लिए विदेश में आदांलेन चलाया। राष्ट्रीय एकात्मता के लिए गांधीजी ने स्वराज्य की संकल्पना को महत्त्व दिया। गांधीजी लघु और कुटीर उद्योगां को महत्त्व देकर भारतीयो कांं स्वावलंबी बनाना चाहते थें। मशिनों की जगह पर श्रम को महत्त्व देना चाहते थें और सरल जीवन पर विश्वास करते थें। स्त्रीयों की शिक्षा के वे पक्षधर थें। वे रचनात्मक आदर्शवादी थें उनके स्वप्नों के भारत का प्रत्येंक सदस्य धर्मनिरपेक्ष रहकर सत्य और अहिंसा के मार्गपर चल कर राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता का महान दायित्त्व निभाने वाला था। विश्वशांती स्थापित करने के लिए युद्ध के बजाएॅ मनुष्य के व्यक्तिगत और सामूहिक जीवन में संतूलन स्थापित करके दिया जा सकता है एैसा वे कहते थें। गांधीजी के विचार आज भी विश्व के सभी युवाआें को प्रभावित करते है। उन्हाने वीर परूषो कें अहिंसा का समर्थन किया जब की शक्तीहीन लांगो की अहिंसा का समर्थन नही करते। आतंरराष्ट्रीय स्तर के यह महान व्यक्ती के विचार का समर्थन तिब्बत धार्मिक नेता दलाई लामा, दक्षिण आफ्रिका के नेल्सन मडेंला और अमरिका के मार्टिन ल्युथर किंग इन्हाने किया। वे गाहेत्याबदीं एवंम मद्यपान के विरोध में थें। निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा राज्यों का उद्देश्य  और कार्य होना चाहिए एैसा गाध्ांजी मानते थे।ं उन्हाने राजनीति का अध्यात्मिकरण किया। धर्म का लौकिकीकरण किया। जो आज के युग में राष्ट्रीय एकिकरण के क्षेत्र में रामबाण सिद्ध होगा। गाध्ांजी का दशर्न धर्म की सुदृढ नीवपर अवस्थित है। धर्म, सत्य तथा अहिंसा पर आधारित एक नैतिक जीवन पद्धती है। आदर्श नैतिकता और धर्म एक ही वस्तू के अनेक नाम है। राजनीति में पंचायत राज और अधिकारां के विकेदं्रीकरण का वों समर्थन करते थें। 
लेकिन हमें आजादी प्राप्त हुए सात दशक हो रहे हैं। इन बीते वर्षों में विकास के नाम पर बड़े-बड़े नगर-महानगर बन गये। एक्सप्रेस वे बना, सडके चौड़ी हुईं। विज्ञान एवं तकनीक के क्षेत्र में नयें कीर्तिमान स्थापित हुए। राष्ट्र अणुशक्ति सम्पन्न बना। इन सब उपलब्धियों के बीच एक प्रश्न जो आजादी के समय भी था, आज भी बना हुआ है, जिसे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी नेंनमक सत्याग्रहके समय भी रखा गया था वह हैआर्थिक असमानता का प्रश्नवर्तमान में बहुत बड़ा प्रश्न बन गया है। 
आर्थिक असमानता का सीधा सम्बन्ध गरीबी, बेरोजगारी और कुपोषण से है। तथा किसानों की स्थिती हमेशा से दयनीय रही हैं। लेकिन इससे पूर्व कभी भी किसानों ने आत्महत्या का विकल्प नहीं चुना था, अब आजाद भारत में यह भी हों रहा है। आज कि बाजारवादी अर्थव्यवस्था में  जीवन के मुल आधार, जल-जंगल-जमीन-खनिज-पहाड़ आदि कुदरत के अनमोल उपहारों पर बड़ी बड़ी देशी-विदेशी कम्पनियों का कब्जा हो रहा है। अतः विकास की जो नीति अपनायी गयी, उससे आर्थिक असमानता क्षेत्रीय असंतुलन उत्पन्न हुआ है।
3. आंदोलन प्रति भावनायेंः-
गांधीजी राजनीतिक संघटन, पंचायत राज व्यवस्था के आधार पर करना चाहते थे। उनकी दृष्टीसे ‘‘अहिंसा का विज्ञान‘‘ ही शुद्र लाकेतत्रं की और ले जाता है। उनका कहना था की लाकेतंत्र और हिंसा साथ - साथ नही चल सकते। अनैतिक सरकारी कानून को विनयपुर्वक भगं करना प्रत्येक सत्याग्रही का कर्तव्य है। गाध्ांजी के आदांलेन का महत्त्वपूर्ण हथियार सविनय कायदेभंग उन्हाने थाेरको नामक महान व्यक्ती से लिया। टस्किन कि आरेसे न्दजव जीपे सेंज - ब्तवूद वि ॅपसक व्सपअम श्रम प्रतिष्ठा यह संकल्पना का स्विकार किया। उदा. दक्षिण आफ्रिका, चपांरन, बारडोली, खेडा आदि देशव्यापी सत्याग्रही आदांलेन, भारत छोडो आदांलेन यह मुलतः सविनय अवज्ञा आदांलेन थे। लाकेतंत्र की स्थापना के लिए राजकिय सत्ता का विकेंद्रकरण आवश्यक मानते थे। शासन चलानेवाले जन प्रतिनिधी निर्वाचित होना जरुरी समझते थे। लेकिन कोई भी निर्वाचित प्रतिनीधी समालेपेलुप नही, त्यागी और कर्तव्य परायण होने की अपक्ष्ेा रखते थे। टॉलस्टाय सें अराज्यवाद, अहिंसा और असहकार का स्विकार किया।
4. महात्मा गाँधी शैक्षिणिक विचार :-
शिक्षा के विषय पर महात्मा गाँधी के विचारों को समझने के लिए उनके ही एक कथन पर गौर करते हैं- ‘‘वास्तविक समस्या यह है कि लोगों को इस बात का आभास नहीं है कि असली शिक्षा क्या है। हम शिक्षा के मूल्य को इसी तरह आँकते हैं जिस तरह ज़मीन और स्टॉक एक्सचेंज में शेयरों के मूल्य को आँकते हैं। हम केवल वही शिक्षा देना चाहते हैं जिससे छात्र अधिक से अधिक पैसा कमा सकें। शिक्षा के चरित्र में सुधार के लिए शायद ही हम कोई प्रयास करते हैं। लड़कियाँ, जिन्हें हम कहते हैं कि उन्हें कमाना नहीं, तो उन्हें क्यों शिक्षा दी जाएँ ? जब तक ऐसे विचार समाज में बने रहेंगे तब तक शिक्षा का सच्चा मूल्य जानने की कोई उम्मीद नहीं है।’’
5. स्वराज एवं स्वदेशी :-
स्वराज एवं स्वदेशी गाँधी का उददेश्य जैसा कि उन्होंने कहा स्वराज और स्वदेशी था। ये दोनों ही शब्द गाँधीजी के सपनों के समाज का प्रतिनिधित्व करते थे। स्वराज का एक बुरा अनुवाद स्वतंत्रता/स्वायत्तता/स्वशासन/देशी शासन के रूप में किया जा सकता है। स्वदेशी को आत्म निभर्रता या आत्म सम्पन्नता ;ेमसि ेनिपिबपमदबल वत ेमसि  तमसपंदबमद्ध के रूप में भी अनुवादित किया जा सकता है। स्वराज से गाँधीजी का तात्पर्य भारत से अँग्रेज़ों को बाहर निकालकर स्वतंत्रता घोषित करना नहीं था। उनका अभिप्राय एक पूर्णतः नया समाज स्थापित करना था। उनका इरादा अँग्रेज़ों के स्थान पर ऐसे भारतीयों को लाना नहीं था जो अँग्रेज़ों जैसा काम कर रहे थे। अगर ऐसा ही हुआ तो सच्ची स्वतंत्रता की प्राप्ति हुई है, ऐसा नहीं कहा जा सकता है। बस फरक इतना है कि लोग बदल गए हैं, सरकार वही है। गाँधी ब्रिटिश राज के मूल्यों जीवनशैली को एक सरल, ज़्यादा आध्यात्मिक और सामुदायिक जीवन शैली में बदल देना चाहते थे। ये नया समाज पूर्व-औपनिवेशिक काल के पुराने मूल्यों को प्रस्थापित करता था, गाँवों पर आधारित था। उनका कहना थाः- ‘‘आज़ादी सबसे नीचे से शुरू होनी चाहिए। इसलिए हरेक गाँव एक गणतंत्र होगा.... जिसके पास सभी शक्तियाँ होंगी। इसलिए हर गाँव को आत्म पोषित होना होगा जो अपने सभी कार्यों के प्रबन्धन में सक्षम होंगे। और अन्ततः प्रत्येक व्यक्ति इकाई होगा। मगर इसमें पड़ोसियों से दुनिया से स्वैच्छिक मदद और उन पर निर्भरता को अलग नहीं किया जाएगा। इस ढाँचे में, जिसमें असंख्य गाँव होंगे, अनवरत फैलाने वाले वृत्त होगें, एक दूसरे के ऊपर चढ़ते हुए वृत्त नहीं। जीवन कोई पिरामिड नहीं होगा जिसके शिखर का भार उसके आधार पर पड़ा करे।’’ नए भारत में गाँधीजी की सोच में हर धर्म को बराबर और पूरा स्थान प्राप्त था वे विभाजन के सख्त खिलाफ थे। साथ ही, उसमें ऐसी मशीनों के लिए कोई स्थान नहीं था जो मानव श्रम को विस्थापित करें और ताकत को केवल कुछ हाथों में सौंप दें।
6. धार्मिक विचार :-   
आज वर्तमान कालिन राजनीति में धर्म कि नाम पर संकिर्ण संस्था अपनी तानाशाही वृद्धींगत करने का प्रयास कर रही है। इस बढती धर्मांधता को राकने के लिए गांधी के विचार आज भी समकालिन परिवेश में आत्याधिक आवश्यकतानुरूप है। लेकिन यह भलू गए की भारत विविध जाती, धर्म, वंश और पंथों का देश है। विविधता में एकता हमारा मंत्र है। इसलिए धर्म का पाख्ांड फैलाने का प्रयास करने वालां कि दास्ता से मुक्ती नही पाते तब तक हमारी मुक्ती का मार्ग प्रशस्त नही हो सकता। यदि बहतुःश देश विदेश में गांधीजी के विचारों कि व्यावहारिकता समझकर उनको मुख्यधारा में लाने कि महत्तम प्रयास कर रही है। विश्व में अपना प्रभाव स्थापित किए अनेक नेता उनके विचारोकांं आदर्श, प्रेरणास्त्रोत, समझ रहे है। सचमुच सुख, शांती और विश्वशान्तीं का सपना देखना अनुचित नही होगा। परिणातः भारत इस निकट भविष्य में संपूर्ण विश्व में शांति का संदेश संप्रेषित कर एक महाशक्ती के रूप में उभर सकता है। नाबेले पुरस्कार देनेवाली नार्वे कि नोबेल समिती ने कहा कि भगवान गौतम बुद्ध और ईसा मसीह के बाद विश्वशान्तीं के लिए सबसे बडा यागेदान देनेवाले महात्मा गाध्ां को नाबेले शांति पुरस्कार नही दिया गया। जिसके बारे में नाबेले समिती को इस तरह पश्चाताप है।
7. महिलाओं कि तत्कालिन स्थिती और आंदोलन प्रति योगदान :- 
प्राचीन समय में परूषां के साथ महिलाआें को कम दर्जा दिया जाने लगा। भारत ने भी परूष प्रधान संस्कृती को अपनाते हुएॅ स्त्री-पुरूष मतभेद होने लगा। समाज में महिलाओकों बचपन से ही यह सिखाया जाता है कि वह दासी है। पुरूष कि सवे करना उसका धर्म है। लेकिन गांधीजी के विचार इससे भिन्न थें। वो नारी को भोग वस्तू या गुडीयॉ मानने को इन्कार करते है। गांधीजी के सामने नारी परंपरागत भारतीय परिवेश में शक्तीशाली देवीतुल्य थी। शिक्षा को वो नारी सशक्तीकरण का सबसे सफल हथियार मानते थें। उनकी सोच से सत्य, अहिंसा, त्याग परिश्रम सहनशिलन और करूणा आदि गुणां के कारण नारी, पुरूष से भी अधिक महिमामयी सिद्ध होती है। गांधीजी के विचारो से प्रेरणा लेकर डॉ उषा महेता, मोराणलिनी देसाई, सुचेता कृपलानी, इंदिरा गांधी, एनी बसेंट, सावित्रीबाई फुले और मॅडम भिकाई कामा इन्हाने अपने कार्यशक्ती का परिचय दिया। गांधीजी ने लिखा कि, नारी को अबला कहना अधर्म और महापाप है। महिला का अर्थ होता है, महान और ताकतवाली। महात्मा गांधी ने स्त्री शिक्षा को स्त्री मुक्ती का प्रबल साधन माना। सदियों से चली आयी कुप्रथा, देवदासी प्रथा समाज मे कलंक है। 1931 मे कॉग्रेस कि कराची अधिवेशन के दारैन महिलाआें को पुरूषां के बराबर संवैधानिक अधिकार देने कि बात कही तो किसीने विरोध नही किया। इससे यह बात स्पष्ट होती है कि, गांधीजी ने महिला उत्थान के प्रति गहिरायी से कार्य किया। गुलामी कि जंजीरों को ताडेने के लिए अंग्रेजो से बगावत करने वाली वीरांगणाआेंनें इतिहास रचा है। समय समय पर हुएॅ विद्रोहां में भारतीय नारीयों ने अग्रणी भिमका निभाई। सर हयजु रोज ने स्त्रीयां के बारे में कहा कि यदि हिंदूस्तान कि एक फिसदी नारीयॉ आजादी कि दिवाना हो गई तो हम सब को यह देश छोडकर, हाथ झाडकर भागना पडेगा। स्त्रीयां को राष्ट्रीय कार्य के लिए संघटित करने हते महात्मा गाध्ां ने  की स्थापना कि। जिससे स्वदेशी आदांलेन को बढावा देना आसान हो गया। राष्ट्रीय कार्यो की जिम्मदेरी महिला को सौपने हते उन्हे घरके अकेलेपन से चार दिवारों से बाहर निकाल के महिलाआें को मोर्चे-जुलुसों मे शामिल करना, उनमें देशभक्ती कि भावना जागतृ करना, उनका मनोबल बढाना उन्हे आत्मनिर्भर बनाना और कानुन ताडेने एवं जेल में जाने के लिए गांधीजी ने तैयार किया। आज की स्त्री सौ वर्ष पहिले के मुकाबले बौद्धिक तथा आर्थिक दृष्ट से ज्यादा सशक्त है। गाध्ां ने महिलायां को बन्दिनी से विद्रोहीनी बनाया। महिला और पुरूषों के भदेभाव नष्ट करके महिला के पुरूषों की आजादी महसुस करनी चाहिएॅ। गांधीजी ने अध्ययन और शिक्षा से महिला सशक्तीकरण की आधिनक परिभाषा प्रस्तुत की।
8. गांधी विचारों की व्यावहारिकता :-   
राज्य आम जनता के भलाई का साधन है। लेकिन एकमवे साधन नही। आज संपूर्ण विश्व परमाणू हथियार की भयानकता से लपेटा हुआ है। आतंकवाद, हिंसाचार, गुन्हेगारीकरण आरै भ्रष्टाचार, बडे पैमाने पर बढा है। विज्ञान की उॅंचाई बढी। वैश्विकरण की युग में जागतिकीकरण, खाजगीकरण और उदारमतवादीकरण हो गया। लेकिन मुल्यां का दुर-दुर तक संबध्ां नही। कुटुंब पद्धती का मलू ढॉचा अस्थिर हो गया। ‘‘कौटुंबिक संस्कार‘‘ नाम का मूल्य नामशष्े हो गया। इस दृष्टि से गांधी विचारों की आवश्यकता है। गाध्ांवाद से मिले हुएॅ संसाधन ही समाज और राज्यां का मलूआधार है। वही आम आदमी के स्वभाव का स्थाया भाव है। इसी तरह प्रस्तुत शाध्े निबंध मे दिये गये महात्मा गाध्ां के मौलिक और चिंतनशील महत्त्वपूर्ण दृष्टिकोन उजागर करना इस लेख का मुख्य उददेश्य है। जिसमें संपूर्ण विश्व का सार्वत्रिक विकास प्रतिबिंबित होता है।            
संदर्भ सूची - 
1.  कौर सुरजीत, जौली संपादिका,  गांधी एक अध्ययन, कंसेप्ट पब्लिकेशन नई दिल्ली, 2007.
2.  लक्ष्मणसिंघ, आधुनिक भारतीय राजनीतिक एवं सामाजिक विचार, कॉलेज बुक डेपो जयपुर, 1970-71.
3. महात्मा गांधी, हिंदी नवजीवन, 10 अप्रेल 1930. पुरोहित बी. आर., प्रातिनिधिक राजकीय विचारक एवं 
   विचारधाराए, मध्यप्रदेश हिंदी गंथ््रा अकादमी भोपाल. शीला (संपा.),
4. विनोबा-‘‘स्त्री शक्ती जागरण, पद्मधाम प्रकाशन
5. पवनार. सिंह मनोजकुमार, कुमार आशुतोष, महात्मा गांधी एक अवलोकन, के. के. पब्लिकेशन नई दिल्ली.
6. कुपलानी सुचने, नारियों के नेता और शिक्षक, साहित्य प्रकाशन वाराणसी, 1969.
7. जैन यशपाल, अहिंसा का अमोघ अस्त्र, सस्ता प्रकाशन, नई दिल्ली, 2007.
8. जैन मानक, गांधी के विचारो की 21 वे सदी

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Milan Tomic

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