शिक्षा वह आधारशिला है, जिस पर व्यक्ति व राष्ट्र का सर्वांगाीण विकास निर्भर करता है शिक्षा ज्ञान-विज्ञान, सभ्यता संस्कृति, भाषा शैली आदि के विकास का सशक्त साधन व राष्ट्रीय विकास का पर्याय है, जिसमें अध्यापक का विशिष्ट स्थान हैं। अध्यापक समाज का महत्वपूर्ण व्यक्ति है जो राष्ट्र की प्रगति को विकास देने के साथ-साथ मानवोचित दिशा प्रदान करता है। शिक्षा प्रक्रिया के तीन प्रमुख अंग- शिक्षक, विद्यार्थी और पाठ्यवस्तु मे शिक्षा प्रक्रिया की धुरी शिक्षक होता है उसके निर्देशन के अभाव में विद्यार्थी ज्ञानार्जन की सही शिक्षा का अनुसरण नही कर सकता । शिक्षक के सन्दर्भ में शिक्षा शास्त्रियों का कहना है कि वह उस मोमबत्ती की तरह है जो स्वयं जलकर दूसरो को प्रकाशित करती है। वास्तव में प्रत्येक राष्ट्र के चहुमुखी आधार स्तम्भ शिक्षा होती हैं। शिक्षा को विकास की प्रक्रिया कहा जाता हैं और इस विकास की प्रक्रिया के दिशा निर्धारण का कार्य शिक्षक करता है।
अध्यापकः- शिक्षा, शैक्षिक व्यवस्था का महत्वपूर्ण भाग है। अध्यापक शिक्षा से तात्पर्य शिक्षकों की व्यवसायिक तैयारी से हैै। इसलिए अध्यापक शिक्षा कार्यक्रम की एक व्यवसायिक शिक्षा कार्यक्रम के रूप में इसकी विषय वस्तु एवं प्रक्रिया अन्य किसी भी अकादमिक कार्यक्रम से भिन्न है। और इस प्रकार एक व्यवसायिक के रूप में शिक्षक तैयार करने का महत्वपूर्ण दायित्व अध्यापक-शिक्षा का है। इस सन्दर्भ में सेवा पूर्व एवं सेवा कालीन प्रयासों द्वारा शिक्षक को एक सफल व्यवसायिक बनाया जाता है। शिक्षको का व्यवसायिक विकास उनके सशक्तिकरण का ही दूसरा पहलू है एक शिक्षक तब तक अच्छा शिक्षक नही बन सकता जब तक की वह स्वंय नही सीख रहा हो प्रशिक्षण विद्यालयों में सि़द्धान्त तथा व्यवहार में असन्तुलन है। शिक्षण के सैद्वान्तिक पक्ष पर अधिक बल दिया जाता है। अभ्यास शिक्षण पर बल कम दिया जाता है।
प्राचीन काल में शिक्षक ब्राहम्ण समुदाय से थे। जहाॅ शिक्षक शिक्षा का स्वरूप परिवार के बडे बुजुर्गों द्वारा आने वाली पीढ़ी को योग्य बनाने के रूप में था स्वतंत्रता पश्चात 1948 में डाॅ. एस.राधाकृष्णनन की अध्यक्षता में बने विश्व विद्यालय आयोग ने व्यवहारिक शिक्षक प्रशिक्षण की वकालत की । 1952 में मुदालियर आयोग या माध्यमिक शिक्षा आयोग ने शिक्षक प्रशिक्षण में अनुसंधान करने व गुणवता लाने की और ध्यान देने पर जोर दिया । इसी संस्तुति के आधार पर छब्म्त्ज् ने 1963 में चार क्षेत्रीय शिक्षा महाविद्यालय खोंले । 1964-66 में शिक्षा आयोग ने प्रशिक्षण संस्थाओं की स्थिति को अच्छी बनाने व व्यापक रूप से अधिक शिक्षक प्रशिक्षण संस्थान खोले जाने की बात कही तथा गुणवता लाने हेतु अनेक मूल्यवान सुझाव दियें। सन् 1978 में छब्म्त्ज् ने टीचर एज्यूकेशन करीकूलम-ए फ्रेम वर्क का निर्माण किया इसी प्रकार विभिन्न पंचवर्षी योजनाओं एवं शिक्षा नीतियों में शिक्षक प्रशिक्षण के महत्व को स्वीकार करते हुए धन व व्यवस्था को उत्तम बनाकर शिक्षक प्रशिक्षण को प्रभावी बनाने के प्रयास किये गयें। 31 जनवरी 2006 तक छब्ज्म् ने 6647 पाठ्यक्रमों के माध्यम से 5.22 लाख प्रशिक्षु अध्यापकों को प्रशिक्षण देने हेतु 5854 अध्यापक प्रशिक्षक संस्थाओं को मान्यता प्रदान की हैं। फिर भी अभी तक शिक्षक शिक्षा कार्यक्रम वांछित गुणवता, प्रभावशीलता लाने में असमर्थ रहा हैं। एक कमी को दूर करने के प्रयास में कई अन्य कमियाॅ सामने आती गई। वर्तमान अध्यापक शिक्षा की दशा तथा उसमें सुधार की के लिए शिक्षा में गुणवत्ता की महती आवश्यकता है।
गुणवत्ता का अर्थः- ’’उपयोग के लिए सर्वोत्तमता’’ गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के द्वारा लोगों में उनके सामथ्र्य के अनुसार ज्ञान व कौशल का विकास किया जाता है।
यूनेस्को (1996) के अनुसार:- ’’शिक्षा व्यक्तिगत विकास एवं सामुदायिक विकास दोनों का हृदय है। इसका उद्देश्य बिना किसी अपवाद के हम सभी की योग्यताओं का विकास करना है, अपनी सृजनात्मक अभियोग्यताओं को बढ़ाना एवं जिम्मेदारियों को निभाते हुए व्यक्तिगत लक्ष्यों को प्राप्त करना है।’’
गुणवत्ता के सिद्धान्त (च्तपदबपचसमे व् िफनंसपजल)
1. गुणवत्ता - उपभोगकर्ता को संतुष्ट करती है।
2. गुणवत्ता - प्रत्येक उत्पाद व कार्य की होती है।
3. गुणवत्ता प्राप्ति के लिए - उच्च प्रबंधन व नेतृत्व की आवश्यकता होती है।
4. गुणवत्ता हेतु किसी संगठन की कार्य प्रणाली में बदलाव की आवश्यकता होती है।
गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के आयाम
ळतममद- भ्ंतअमल (1993) ने गुणवत्तायुक्त शिक्षा के निम्न आयाम देखे-
1. अपवाद के रूप में अर्थात सर्वोंच्च मानक
2. सततता के रूप में अर्थात दोषमुक्त
3. उद्देश्य की पूर्णता के रूप में
4. रूपान्तरक के रूप में
गुणवत्ता का संप्रत्यय नया नही हैं। इसके बारे में सबसे पहलें उद्योगों में बताया गया जहांॅ सर्वोतम उत्पाद की प्राप्ति के लिए उसकी गुणवत्ता को मापा जाता है व इस कार्य के लिए कई मानक निर्धारित किए गये थे। गुणवत्ता को इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है कि ’’गुणवत्ता किसी उत्पाद या सेवा की विशेषताओं एवं गुणों का संग्रह है जिसके आधार पर आवश्यकताओं को योग्यतानुसार संतुष्ट किया जाता है।’’
गुणवत्तापूर्ण से संबंधित प्रमुख पद (ज्ञमल जमतउे ंेेवबपंजमक ूपजी ुनंसपजल म्कनबंजपवद)
1.शैक्षिक मानक ;।बंकमउपब ैजंदकंतकेद्ध:- शैक्षिक मानक उच्च होने चाहिए जिन के आधार पर किसी शैक्षिक संस्थान की गुणवत्ता स्थापित की जा सके।
2.शैक्षिक गुणवत्ता ;।बंकमउपब फनंसपजलद्ध:- महाविद्यालय में छा़त्रों को प्रभावी शिक्षण, समर्थन, मूल्याकंन तथा अधिगम हेतु उचित व पर्याप्त अवसर प्रदान करने चाहिए ताकि वे शैक्षिक अवसरों का लाभ उठाकर अपने स्तर में वृद्धि कर सके।
3.गुणवत्ता की गारन्टी ;फनंसपजल ।ेेनतंदबमद्ध:- शैक्षिक मानकों को बनाए रखना ही गुणवत्ता की गारन्टी कहलाता है। इसमें छात्रों की गुणवत्ता के लिए उन्हें उचित अधिगम के अवसर दिए जाते है।
4.गुणवत्ता में वृद्धि ;फनंसपजल म्दींदबमउमदजद्ध:- इसके अन्तर्गत वे सभी पद आते है जिसके द्वारा छात्रों के अधिगम अनुभवों को प्रभावी बनाया जाता है।
भारत में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का मूल्यांकन ;प्दकपंद प्दपजपंजपअमे वित फनंसपजल ंेेमेेउमदज ंदक म्अंसनंजपवदद्ध:- हाल के कुछ वर्षो में भारतीय उच्च शिक्षा तंत्र भी क्वालिटी के प्रति सचेत हुआ है। यह क्वालिटी एक रात में प्राप्त नहीं होती बल्कि इसके लिए संगठित व केन्द्रित प्रयास करना आवश्यक है तभी उच्च क्वालिटी के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है। संसाधनो का उचित रखरखाव व वितरण इसके लिए आवश्यक है। न्ळब् (विश्वविद्यालय अनुदान आयोग) ने भी गुणवत्तायुक्त शिक्षा पर कार्य करने पर बल दिया है। न्ळब् ने कई स्कीम लागू की है जिसके द्वारा शिक्षा तत्रं पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा है। इनमें कुछ निम्न प्रकार है।
1. विभिन्न क्षेत्रों में नवाचार कार्यक्रम चलाना
2. अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग द्वारा शिक्षा स्तर में सुधार
3. उत्तम स्तर (ग्रेेडिंग) के आधार पर स्कूलों व काॅलेजों की पहचान करना। इस हेतु 1994 में राष्ट्रीय मूल्यांकन व प्रत्यानयन समिति (छ।।ब्) का गठन हुआ जिसका मुख्य कार्य काॅलेजो को उनकी कमजोरियों व अच्छाइयों के बारे में बताना एवं सुधार कराना है।
4. छंजपवदंस म्सपहपइपसपजल ज्मेज ;छम्ज्द्ध
5. अनुसंधान के विकास हेतु विभिन्न योजनाएॅ बनाना
6. इंजीनियररिंग व तकनिकी शिक्षा के विकास के लिए कार्यक्रम बनाना।
7. प्रबंधन शिक्षा के लिए कार्यक्रम बनाना।
8. मूल्यांकन व प्रत्यानयन तंत्र
महाविद्यालयों की गुणवत्ता बढ़ाने के कुछ उपाय (ैवउम ूंले व िमदींदबपदह ुनंसपजल):-
गुणवत्ता बढ़ाना एक समेकित अवधारणा है जिसमें वह प्रत्येक व्यक्ति शामिल है जो पढ़ाता है या छात्रों का मार्गदर्शन करता है। इसमें उच्च शिक्षा संस्थानों के मैनेजर व प्रबधंक भी सम्मिलित है।
1. उच्च शिक्षा में बैचमार्किग:- बैंचमार्किग किसी संस्थान के कार्य का मापन व तुलना करने की व्यवस्थित प्रक्रिया है। इसमें महाविद्यालय की आन्तरिक क्रियाओं पर बहारी केन्द्र कार्य करता है बैचमार्किग प्रयोगात्मक व अवधारणात्मक दोनो ही रूपो में एक महत्त्वपुर्ण रणनीति है जिसके द्वारा प्रबंधन प्रक्रियों में अपेक्षित सुधार किया जा सकता है।
2. आन्तरिक आॅडिट:- इस आॅडिट के द्वारा गुणवत्ता, समन्वय व मानकों का निर्धारण व क्रियान्वयन की जांच की जाती है। इसका मुख्य उद्देश्य किसी भी महाविद्यालय की प्रक्रियाओं व परिणामों को सुधारना है। इसके द्वारा छात्रों के अधिगम अनुभवों का तथा पाठ्यक्रम का पता लगाया जाता है कि महाविद्यालय अपने निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने में कितना सफल रहा है।
सारांश:- शिक्षक समाज की व शिक्षण प्रक्रिया की वह धुरी है जो समाज व राष्ट्र के लिए नये-नये उच्च व्यक्तित्व वाले नागरिको का निर्माण करता हैं। छात्रों को उनकी क्षमताओं के अनुसार सुयोग्य नागरिक बनाता है। जिससे छात्र भविष्य में देश ,समाज तथा स्वयं की उन्नति कर सके। शिक्षक छात्रो को एंेसा वातावरण देता है जिससे वे शिक्षा प्राप्त कर अपनी अन्तनिर्हित क्षमतआंे को पहचान कर आत्मानुभूति व आत्माभिव्यक्ति कर सकें।
Very nice. Topic is very useful for me.
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