स्व-संकल्प शिक्षा प्रणाली स्वाध्याय शिक्षा का मुलाधार है। स्वाध्याय मस्तिष्क के लिए शक्ति वर्धक रसायन है। इस स्वाध्याय से ही बुद्धि की निर्मलता बढ़ती है और अनुशासन की रक्षा एवं संशय की निवृत्ति होती है। इसलिए जैन, बौद्ध और वैदिककालीन आचार्य, ऋषिगण बालकों में स्वाध्याय की प्रवृत्ति की वृद्धि का प्रयत्न किया करते थे। ये ऋषिगण यह भी जानते थे कि स्वध्याय से बढ़कर अन्य कोई तप नहीं है। स्वाध्याय का तात्पर्य अध्ययन करना नहीं है; बल्कि अपने भीतर की कमियों को जानकर उसकी दिशा को अच्छी दिशा की ओर प्रेरित करना है; गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने स्वाध्याय को महा यज्ञ बताया है। हम यह भी जानते है कि अध्ययन और स्वाध्याय में अंतर है। जब अध्ययन स्वाध्याय के रूप में परिवर्तित होता है तो अध्ययन जीवन के लिए वरदान सिद्ध हो जाता है, क्योंकि अपने द्वारा अपना अध्ययन करना ही स्वाध्याय है, स्वाध्याय ही जीवन का मंत्र है, स्वाध्याय ही मन के संयम और सदाचार को बढ़ता है। अवगुणों को दूर कर सदगुणों का समावेश कराता है और इन नैतिक गुणों को धारण करने से मनुष्य मानव बन जाता है।
अध्ययन का उद्देश्य-
वर्तमान शिक्षा प्रणाली में मूल्यहीनता की समस्या महत्वपूर्ण है सभी विद्यार्थियों को गुणवत्तायुक्त
शिक्षा प्रदान करने में आज की शिक्षा पद्धति लगभग असफल रही है। विद्यार्थियों में स्पष्ट जीवनदृष्टि, कौशल, सामन्जस्य स्थापित करने की क्षमता, व्यक्तित्व के संतुलित विकास का अभाव दिखाई देता है। विद्यार्थी के मानसिक स्तर को शुद्ध तथा शक्तिशाली बनाने के लिए आज की शिक्षा प्रणाली असफल प्रतीत होती है। शिक्षा के व्यापक अर्थ को ग्रहण करते हुए वर्तमान शिक्षा प्रणाली का पूर्व मध्यकालीन शिक्षा प्रणाली के आधार पर भारतीयकरण किया जाना चाहिए। अतीत कालीन सांस्कृतिक, शैक्षिक उपलब्धियों को आज की शिक्षा प्रणाली में सम्यक रूप से प्रयोग करना चाहिए। पूर्व मध्यकालीन भारत के जीवन के आदर्श को, उत्कृष्ट जीवन मूल्यों को आज की स्वाध्याय शिक्षा प्रणाली में सम्मिलित करते हुए विद्यार्थियों के लिए स्पष्ट शैक्षिक कार्यक्रम पूर्व-निर्धारित लक्ष्य के अनुसार सुनिश्चित करना चाहिए।
स्वाध्याय शिक्षा प्रणाली मानव की आंतरिक अभिक्षमताओं, योग्यताओं एवं शक्तियों के परिवर्तित करने का एक सशक्त साधन है । वर्तमान काल में व्यक्ति भौतिकवादी होता जा रहा है उसके आचार-विचार, रहन-सहन, चिंतन यहां तक कि जीवन मूल्य भी परिवर्तित होते जा रहे हैं। आज के युवक युवतियों के मन्दिर गुरूद्वार व मस्जिद, थियेटर, क्लब और इंटरनेट होते जा रहे हैं। आज की शिक्षा व्यवस्था बालक को उसके जीवन मूल्यों से परिचित कराने में समर्थ नहीं हैं इसलिए वर्तमान कालीन शिक्षा व्यवस्था और शैक्षिक मूल्यों को पूर्व मध्यकालीन भारत की स्वाध्याय शिक्षा प्रणाली और शैक्षिक मूल्यों पर अवलंबित करना होगा।
स्व-संकल्प शिक्षा प्रणाली का स्वरूप-
स्व-संकल्प शिक्षा प्रणाली को प्रदान किये जाने हेतु यह आवश्यक है कि स्व-अधिगम सामग्री के स्वरूप एवं प्रकृती की चर्चा की जाये। जो इस प्रकार है।
1. स्व-संकल्प शिक्षा प्रणाली का आधार सम्प्रेषण सिद्धान्त - सम्पूर्ण विश्व में स्वाध्याय शिक्षा प्रणली एक नवीन सामाजिक, राजनैतिक व धार्मिक चेतना का परिणाम है। यह स्वतन्त्र शिक्षण एवं सामाजिक दायित्वों कों पूर्ण करने वाली एक सशक्त प्रणाली सिद्ध हो सकती है। अधिगम सामग्री में स्वाध्याय प्रक्रिया का प्रयोग करते हुये सूचनाओं की प्रासंगिकता,सम्प्रेषण हेतु उपयुक्त संकेतों का निमार्ण एवं उनकी अर्थापन क्षमतों का ध्यान रखा जाता है।
2. स्व-संकल्प शिक्षा प्रणाली का आधार अधिगम सिद्धान्त - दुरस्थ शिक्षा में शिक्षार्थी के मध्य मुद्रित पाठ्य सामग्री को स्वाध्याय एवं इलेक्ट्रोनिक उपकरणों के माध्यम से सम्पन्न होता है। इसमे थार्नाडाइक द्वारा प्रतिपादित अधिगम के तीनों मुख्य नियम तत्परता का नियम अभ्यास का नियम एवं प्रभाव का नियम सम्मिलित है। अधिगम के व्यवहारवादी दृष्टिकोण का प्रयोग कर तीनों नियमों पर ध्यान देने का प्रयास किया जाता है।
1. प्रिणाम का ज्ञान अथवा पुष्टि व सकारात्मक पुर्नबलन का प्रयोग।
2. पुनर्बल प्रदान करनें में कम से कम विलम्व।
3. जटिल व्यवहारों की व्याख्या हेतु छोटे-छोटे घटक/उपघटकों के रूप में अधिगम विभाजन। स्किनर के अनुसार पुर्नबलन अधिगम को आगे बढ़ाने में सहायक होता
है।
3. वास्तविक कक्षा शिक्षण हेतु परिस्थितियों का निर्माण - सम्पूर्ण स्व-अधिगम सामग्री इस रूप में प्रस्तुत की जाती है जैसे कि वास्तविक कक्षा शिक्षण में परिस्थितियां उत्पन्न होती है। वास्तविक कक्षा शिक्षण में अध्यापक एवं अध्येता के मध्य की सम्पूर्ण प्रतिक्रियायें अप्रत्यक्ष रूप से उत्पन्न की जाती है। सभी इकाइयां अपने आप में परिपूर्ण होती है।
1. रोचक एवं लचीला - स्वाध्याय के लिये स्व-अधिगम सामग्री को रोचक एवं अध्येता की मनोवैज्ञानिक आवश्यकता के अनुसार संग्रहित एवं रचित होती है। स्व-अधिगम सामग्री में सभी तथ्यों को व्यवस्थित करके रखते हुये सम्पूर्ण विषय वस्तु को सरलतम तरीके से रखा जाता है। इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है, कि विषय सामग्री सरल से कठिन की और प्रत्यक्ष से अप्रत्यक्ष की और एवं ज्ञात से अज्ञात की ओर प्रस्तुत किया जाता है।
2. व्यावहारिकता - स्वाध्याय के लिये स्व-अधिगम सामग्री का स्वरूप व्यावहारिक होता है जो सम्पूर्ण विषय वस्तु से जुड़ा रहता है। स्व-अधिगम सामग्री में नवीन एवं आवश्यक तथ्यों को विषय सामग्री में जोड़ा जाता है।
स्व-संकल्प शिक्षा हेतु स्व-अधिगम सामग्री विकास के आवश्यक तत्व -
शिक्षा एक सोद्देश्य प्रक्रिया हैै तथा पाठयक्रम इन उद्देश्यों की पूर्ति का सबसे महत्वपूर्ण साधन है। स्वाध्याय के लिये भी उद्देश्यों की प्राप्ति का साधन स्व-अधिगम ही होता है। इसके अन्तर्गत स्व-अधिगम के साथ-साथ अधिगम के अन्य तत्वों को भी सम्मिलित किया जाता है। स्वाध्याय में स्व-अधिगम सामग्री एक जटिल एवं लम्बी प्रक्रिया है अतः स्व-अधिगम के विकास के लिए परम्परागत शिक्षा की आवश्यकताओं व लक्ष्यों को ध्यान में रखना होता है।
1. स्व-अघिगम के उद्देश्य का प्रस्तुतीकरण एवं व्याख्या - स्व-अधिगम सामग्री में व्यापकता के कारण तीनों पक्षों को समाहित करने का प्रयास किया जाता है। इससें स्व-अधिगम के उद्देश्य प्रस्तुतीकरण करते हुये व्याख्या करने का प्रयास किया है।
2. स्व-अधिगम सामग्री के माध्यम से संवाद - परम्परागत शिक्षा में वास्तविक शिक्षण के दौरान अध्यापक एवं अध्येता के मध्य सक्रिय सम्प्रेषण हो जाता है, जबकि स्व-अधिगम शिक्षा में संवेदशीलता भी स्व-अधिगम सामग्री के माध्यम से ही स्थापित की जाती है। इसके लिये पाठ्य सामग्री में अन्तःक्रियात्मकता की प्रव्रत्ति एवं लय से युक्त होती है। अथार्त सामग्री प्रस्तुतीेकरण मे स्वाध्याय शैली का पुट होना चाहिये। इसके अतिरिक्त गृहकार्य पर शिक्षण टिप्पणियां श्रव्य-दृश्य माध्यमों से शिक्षक की आवाज एवं प्रदर्शन भी अध्यापक-अध्येता की अन्तः क्रिया को सम्भव बनाते हैं।
3. स्व-अधिगम कौशलों के विकास पर केन्द्र - स्वााध्याय में पाठ्यक्रम पूर्णतया स्व-अध्ययन पर आधारित होता है, अतः अध्येताओं को इसके लिये निर्माण करने का कार्य भी अनुदेशनात्मक सामग्री के माध्यम से करना पड़ता है, और स्व-अध्ययन के विविध कौशलों की उत्पत्ति एवं विकास हेतु आवश्यक सामग्री के माध्यम से करना पड़ता है, और स्व-अधिगम के विविध कौशलों की उत्पत्ति एवं विकास हेतु आवश्यक संकेत एवं निर्देशन दिये जाने की आवश्यकता होती है, और पाठ्यक्रम प्रारूपण में इसका ध्यान रखा जाता है।
4. अध्येता की प्रकृति एवं आवश्यकता - स्व-अधिगम अध्येता उन्मुक्त होता है अतः पाठयक्रम निर्धारण में भी अध्येता की प्रकृति एवं आवश्यकता को केन्द्र बनाकर किया जाता है। उसकी आयु योग्यता एवं आकांक्षा स्तर में पर्याप्त भिन्नता हो सकती है। इसके अतिरिक्त दूर अध्येता विभिन्न क्षेत्रों व विविध शिक्षण संस्थाओं के पूर्व विद्यार्थी होते है, और उनके अधिगम की आदतों के अतिरिक्त प्रकृति एवं उपलब्धि में भी प्रयाप्त अन्तर होता है। इस कारण स्वाध्याय शिक्षा व्यवस्था में निरन्तर शोध निष्कर्षाें का सहारा लिया जाता है।
5. राष्ट्रीय एवं सामाजिक लक्ष्यों का समावेश किया जाना - सभी स्तरों पर शिक्षा का मुख्य उद्देश्य व्यक्तिगत एवं सामाजिक विकास से होता है। और शिक्षा के द्वारा समाज व्यक्ति व राष्ट्र की उन्नति की संकल्पना को पूरा करना है । इसी प्रकार से स्वाध्याय व दुरस्थ शिक्षा में भी पाठ्यक्रम विकास में इन तथ्यों को समाहित किया जाता है, और इस रूप में तैयार किया जाता है कि वह समाजोपयोगी एवं राष्ट्रोपयोगी मानव संसाधन तैयार करें।
स्व-अधिगम सामग्री की आवश्यकता-
दूरस्थ शिक्षा व्यवस्था का मुख्य स्वरूप दूर अध्येता का शिक्षा संस्थानों से दुरी है इससे अध्येता पाठ्यक्रम के स्वरूप से लेकर शिक्षण तक निर्धारित रहता है उसे ने तो अध्यापक का निर्देशन प्राप्त होता है न हीं सहपाठियों का मार्गदर्शन इसलिए स्व-अधिगम सामग्री इस कमी को ध्यान में रखकर ऐसे संकल्पित की जाती है कि वह स्वयं में पूर्ण पर्याप्त, शैक्षणिक, स्पष्ट, निर्देशित, आंकलन करने योग्य एवं सहपाठी की भांति होती है दूर अध्येता को सहारा देने के साथ अधिगम व अध्ययन हेतु मार्गदर्शन देती है इसके साथ ही दुर अध्येता के अधिगम को सुलभ बना देती है और वह बाह्म सहायता को कम कर देती है।
स्व अधिगम सामग्री दूर अध्येता को पाठ्यक्रम विशेष में क्या और कितना पढ़ना है, और कहां तक जाना आवश्यक है यह स्पष्ट करती है। यह दूर अध्येताओं के समक्ष अधिगम परिस्थितियां उत्पन्न कर देती है जिससे विद्यार्थी सीखने के लिए विवश हो जाता है इनका स्वरूप इस प्रकार से निर्मित किया जाता है कि वह ऐसा प्रतीत होता है कि अध्यापक को अप्रत्यक्ष रुप से उपस्थित ही प्रदान कर देता है, और अध्येता को ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि अप्रत्यक्ष रूप से कोई उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति कर रहा हो, उन्हें निर्देश दे रहा है। स्व-अधिगम सामग्री में अध्येता को अपनी गति से अधिगम की सुविधा के साथ-साथ अपने अधिगम के आकलन की भी सुविधा दी जाती है इसके अतिरिक्त संपूर्ण शिक्षण सामग्री अध्यापक अप्रत्यक्ष वार्तालाप को प्रकट करती है स्व-अधिगम सामग्री पूर्णता अध्येता उन्मुक्त होती है इसलिए यह मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों पर अभीकल्पित किया जाता है।
1. स्व-अधिगम सामग्री का अभिकल्पन - स्व-अधिगम सामग्री की अभिकल्पन करने तथा उसका विकास करने के लिए उसकी मुख्य विशेषताओं का बोध अनिवार्य है। इसके अतिरिक्त स्व-अधिगम सामग्री के लेखकांे एवं अभिकल्पको की पूर्वपेरक्षाओं का ज्ञान भी आवश्यक है।
2. स्व-अधिगम सामग्री की मुख्य विशेषताये - स्व-अधिगम सामग्री के कुछ विशेष अभिलक्षण होते हैं यद्यपि स्व-अधिगम सामग्री की विशेषतायें, उद्देश्यों, प्रयोजन और प्रस्तुतीकरण की शैली के आधार पर थोड़ा बहुत भिन्न हो सकती ह,ै तथापि स्व-अधिगम सामग्री की कुछ स्थाई विशेषतायें है। स्व-अधिगम सामग्री को यद्यपि स्वाध्याय का नाम दिया जाता है, तथापि उनका ध्यान केंद्र अध्यापन अथवा शिक्षण की अपेक्षा अधिगम पर अधिक होता है ये अलग-अलग शिक्षार्थियों की आवश्यकताओं पर आधारित है ने की अध्यापक तथा मुक्त अधिगम संस्थाओं की रूचियों पर। यें विद्यार्थियों को अपने अधिगम पर यथा संभव अधिक से अधिक नियंत्रण प्रदान करती हैं इसलिए आजकल से स्व-अधिगम सामग्री को स्वाध्याय सामग्री कहा जाता है ।
3. स्व-व्याख्यात्मक - स्व-अधिगम सामग्री इस अर्थ में स्व-व्याख्यात्मक होती है कि विद्यार्थी अधिगम सामग्री के द्वारा अध्ययन कर सकते हैं और विषयवस्तु को बिना किसी प्रकार की अधिक बाह्म सहायता या समर्थन के आसानी से समझ सकते हैं इसलिए, ये सामग्री विषय-वस्तु, प्रस्तुतीकरण और भाषा की दृष्टि से किसी भी अस्पष्टता से मुक्त होनी चाहिए। विषयवस्तु तर्कसंगत रूप से व्यवस्थित होनी चाहिए, और प्रस्तुतीकरण सरल और प्रभावी होना चाहिए। प्रत्येक वस्तु इस प्रकार स्पष्ट होनी चाहिए की अध्येता को सीखने और ज्ञान वृद्धि करने में सहायक हो।
4. स्व-पूर्ण - स्व-अधिगम सामग्री स्वयं में पूर्ण अथवा स्वयं में पर्याप्त होनी चाहिए। विद्यार्थी के लिए पाठ्यक्रम उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए आपेक्षित समस्त आवश्यक विषयवस्तु स्व-अधिगम सामग्री में सम्मिलित करनी चाहिए। विद्यार्थी को अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए अतिरिक्त अध्ययन सामग्री की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए, क्योंकि अतिरिक्त सामग्री प्राप्त करने में समस्याएं आती हैं साथ ही स्व-अधिगम सामग्री अत्यधिक विषयवस्तु अथवा अधिगम कार्य से अतिभारित नहीं होनी चाहिए।
5. स्व-निर्देशित - एक प्रभावी अध्यापक के महत्वपूर्ण कार्यों में से एक विद्यार्थी को आवश्यक ज्ञान, कौशल तथा अभवृत्तियों को स्वयं अर्जन करने के लिए विद्यार्थीयों को निर्देशित करना है इसी प्रकार शिक्षार्थी को स्व-अधिगम प्रक्रिया की प्रत्येक अवस्था पर आवश्यक मार्गदर्शन और सुझाव प्रदान करके स्व-अधिगम शिक्षा एक प्रभावी अध्यापक का कार्य संपादित करती है विषय वस्तु को तर्कसंगत अनुक्रम में प्रस्तुत करके, विद्याथीर्यों के स्तर के अनुसार अधिगम संकल्पनाओं की व्याख्या करके उचित स्व-अधिगम कार्यकलाप प्रदान करके और विषय वस्तु को समझने में सरल बनाने के लिए चित्रोदाहरण प्रस्तुत करके अधिगम को दिशा दी जा सकती है।
6. स्व-अभिप्रेरण - अभिप्रेरण प्रभावी अधिगम की पुर्व आवश्यकता है। स्व अधिगम सामग्री से विद्यार्थियों में रुचि और अभिप्रेरणा उत्पन्न करने और बनाये रखने की क्षमता होनी चाहिये। विषयवस्तु को जिज्ञासात्मक होना चाहिए समस्यायें उठानी चाहिये और ज्ञान संबंधी विद्यार्थियों को परिचित परिस्थितियों से स्थापित करना चाहिये ताकि विद्यार्थी अभिप्रेरित अनुभव करें और उनका ज्ञान निश्चित हो जाए इस प्रकार का अभिप्रेरणा और प्रबलीकरण अधिगम की प्रत्येक अवस्था में देना चाहिए।
7. स्व-अधिगम - स्व-अधिगम सामग्री कार्यक्रमबद्ध शिक्षण के सिद्धांतों पर आधारित होती है कार्यक्रम शिक्षण के अभिलक्षण जैसे कि उद्देश्यों का विनिर्देशन, विषयवस्तु को छोटे एवं प्रबंधनीय चरणों में बांटना अधिगम अनुभवों का अनुकरण करना, प्रतिपुष्टि प्रदान करना आदि को स्व-अधिगम सामग्री में सम्मिलित किया जाता है।
8. स्व-मूल्यांकन - स्व-अधिगम सामग्री विद्यार्थियों को इष्टतम अधिगम को सुनिश्चित करने के लिए, उचित प्रतिपुष्टि प्रदान करते हैं। वे विद्यार्थियों को यह भी जानकारी देते हैं कि क्या वे ठीक दिशा में प्रगति कर रहे हैं अथवा नहीं। स्व-जांच अभ्यास, मूल पाठ में प्रश्न, कार्यकलाप और अभ्यास के दूसरे प्रकार अध्येताओं को उनकी प्रगति के विषय में बहुअपेक्षित प्रतिपुष्टि देते हैं। यहां यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि प्रगति से संबंधित प्रतिपुष्टि विद्यार्थियों को एक अधिगम बिंदु से दूसरे अधिगम बिंदु तक सीखने और आगे बढ़ने के लिए प्रबलित और अभीप्रेरित करता है दूसरे शब्दों में परिणाम का ज्ञान अध्येताओं को आगे सीखने के लिये सकारात्मक प्रबलन प्रदान करता है उपरोक्त विशेषताओं के साथ स्व अधिगम सामग्री के विकास के लिए इस बात की भी आवश्यकता है कि ज्ञान, कौशलों और सक्षमताओं वाले लोगों को सम्मिलित किया जाये। इसका यह तात्पर्य है कि स्वाध्याय शिक्षकों से यह अपेक्षा की जाती है कि उनमें प्रभावी स्व-अधिगम सामग्री के विकास निश्चित है।
9. प्रणाली की सुविज्ञता - पाठ्यक्रम लेखकों को संबंधित दूर शिक्षा संस्थाओं की शिक्षण प्रणाली से पूरी तरह परिचित होना चाहिए। उन्हें पद्धति के विद्यार्थियों की रूपरेखा और अनुसरण किये जा रहे माध्यम उपागम से भी परिचित होना चाहिये।
10. लक्ष्य वर्ग की सुविज्ञता - दूर शिक्षा पद्धति में विद्यार्थी विभिन्न पृष्ठभूमियों, शैक्षिक योग्यताओं, अनुभवों, सामाजिक आर्थिक स्तरों और आयु आदि से आते हैं वे दूर शिक्षा पाठ्यक्रम में विभिन्न भाषात्मक योग्यताआ,ें सीखने की सामर्थ्य, अध्ययन आदतों, पूर्व आवश्यक ज्ञान ग्राम-शहरों आदि से आकर भाग लेते हैं। अधिगम सामग्रीयों के विकास में लगे पाठ्यक्रम लेखकों को दूर शिक्षा के माध्यम से शिक्षा लेने वाले विद्यार्थियों के विभिन्न वर्गों की आवश्यकताओं अपेक्षाओं और सीखने की आदतों से परिचित होना चाहिये। अधिगम सामग्री विद्यार्थियों के बौद्धिक स्तर के अनुसार तैयार करनी चाहिए। अर्थपूर्ण, प्रभावी अधिगम सामग्री को विकसित करने के लिये पाठ्यक्रम लेखक को पाठ्य विवरण का पूर्ण ज्ञान होना चाहिए। इसलिए यह दावा करने के लिए की स्वाध्याय अधिगम सामग्री से स्व-पूरित और स्वाध्याय हेतु पाठ्यक्रम लेखक को सबसे पहले अधिगम अनुभव/ कार्यों की दृष्टि से पाठ्य विवरण का पूरी तरह विश्लेषण करना चाहिये। पाठ्यक्रम विशेष में विद्यार्थियों को उद्दश्यों को प्राप्त करेन में सहायता देने की दृष्टि से लेखक को उसकी विषयवस्तु की व्याप्ति का ज्ञान होना चाहिये।
निष्कर्ष:- शिक्षा का उद्देश्य मात्र नवीन ज्ञान को प्रदान करना ही नही बल्कि शिक्षार्थी कों के जीवन निमार्ण के लियें प्रेरित करना है। उपरोक्त तथ्यो के आधार पर कहा जा सकता है। स्व-संकल्प शिक्षा प्रणाली स्वाध्याय शिक्षा का मुलाधार है। स्वाध्याय से शिक्षार्थी अपने अनुभवों का भरपूर उपयोग कर शिक्षार्थियों को स्वाध्याय के लिये अभिप्रेरित करने का एक अच्छा माध्यम है। जिससे शिक्षार्थी में व्यक्तिगत, सामाजिक और आर्थिक सम्बंध विकसित करने वाली शैली का पूर्ण विकास होता है यह उपागम अभिप्रेरणा प्रदान करने के साथ-साथ व्यक्तिगत सम्बन्ध विकसित करने में अपना महत्वपूर्ण योगदान प्रदान करती है। इस शिक्षण प्रक्रिया के अन्तर्गत नवीन सम्प्रत्ययों, कौशलों को सीखना तथा नवीन अभिवृत्तियों को विकसित करना है।
संकलन ग्रंथ सुची -
1. डाॅ. एस. के. मंगल. (2009) शिक्षा मनोविज्ञान. नई दिल्ली: पी.एच.लर्निग.
2. डाॅ. समणी ऋजुप्रज्ञा. (2011) व्यक्तित्व विकास और योग. लाडनूँ: जैन विश्व भारती विश्वविद्यालय
3. डाॅ. एस. पी. गुप्ता. (2014) उच्चतर शिक्षा मनोविज्ञान. इलाहाबाद: शारदा पुस्तक भवन.
4. https://www.scotbuzz.org/2017/04/sv-adhigam-samagri.html
5. https://hindi.indiawaterportal.org/node/57834
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